विवाह संस्कार मुहूर्त।

इस संस्कार का प्रयोजन गृहस्थ जीवन में प्रवेश तथा सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारी को जीवन में परिवहन करने कि शुरुआत करना है।

ब्रह्मचर्य व्रत तथा विद्याध्ययन की समाप्ति पर विद्यार्थियों को घर लोटने की अनुमति मिल जाती है। घर लोटे पर विद्याध्ययन के अनुसार ही आजिविका का चुनाव करके जीवन में पुरुषार्थ को सिद्ध किया जाता है।

इससे सामर्थ्यवान जीवन की सर्वोच्चता कह सकती है। व्यक्ति सामर्थ्यवान पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए जीवन साथी का चुनाव करके विवाह करता है। इस समय जो संस्कार किया जाता है उसे विवाह संस्कार कहा जाता है। विवाह संस्कार का स्थान सन्तानोपत्ति करके अपने अथवा अपने पूर्वजों का उद्धार करना।

इसके लिए सबसे ज़रूरी बात वर वधु की आयु । आज के समय के अनुसार 18 वर्ष तक कन्या कि आयु तथा 21 वर्ष तक  पुरुष कि  आयु  होनी चाहिए । कन्या का विवाह सम वर्षों में होना चाहिए और पुत्र का विवाह विषम वर्षों में होना चाहिए।

यहाँ पर एक भ्रांति को दूर करते हैं शास्त्रों में कहा गया है कि कन्या का प्रथम पति (पालक) सोम अर्थात चंद्रमा है। दूसरा पति गंधर्व को कहा गया है। तीसरा पति अग्नि देव को कहा गया है और चौथा पति मनुष्य को कहा गया है ।

इन सब बातो से अभिप्राय कन्या के शरीर की स्वाभाविक प्रकृति से हैं। कन्या कि तेरह वर्ष तक सोम अथवा चंद्रमा पति होने का अर्थ है कफ प्रकृति प्रधान होती है। इसके पश्चात सतन उभरने तक गंधर्व अथवा वात (वायु) प्रधान प्रकृति रहती है।  इसके बाद विवाह कि आयु तक पत्ति अग्नि देव।विवाह की आयु के बाद पुरुष पत्ती कहा जाता है।

विवाह संस्कार के मुहूर्त पर विचारणीय बिंदु:-

प्राचीन काल में विवाह संस्कार में 84 प्रकार के विद्वानों का मत था। लेकिन आज के माहौल को ध्यान में रखते हुए नीचे दिए गए विचारों पर विचार किया जाता है।

मांस विचार:

  • माघ, फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, कार्तिक मास कि शुक्ल एकादशी से तथा मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में ये महीने विवाह संस्कार के लिए उत्तम है।
  • श्रावण,भाद्रपद,आश्विन, कार्तिक मास में कही कही विवाह संस्कार होते हैं लेकिन इनके माध्यम से शुभ माना जाता है।
  • अध्याय पादुष में विवाह संस्कार विशेष वर्जित माने गए हैं।
  • इसके अलावा चैत्र मास में मेष की सक्रांति होने के बाद के समय में विवाह संस्कार को उत्तम बताया गया है।
  • कार्तिक मास में भी वृश्चिक सक्रांति के होने के बाद और पौष मास में भी मकर सक्रांति के बाद विवाह संस्कार के लिए उत्तम समय माना जाता है।
  • जब मीन का सूर्य चैत्र मास में हो तो विवाह पूर्णतः वर्जित होता है।
  • सात सबसे बड़ी संतान का विवाह ज्येष्ठ मास में वर्जित होता है।
  • क्षय मास, अधिक मास भी वर्जित कहे गए हैं।
  • मास की सन्धि को भी वर्जित माना गया है।
  • मल मास विवाह संस्कार मे वर्जित होते हैं। ( गुरु सिंह राशि मे हो तथा सूर्य धनु तथा मीन मे हो तो मल मास होता है। )

नक्षत्र विचार:- अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तरा-फाल्गुनी, हस्त,चित्रा, स्वाति, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, सुन्दरा, उत्तरा-भाद्रपद, रेवती।

  • स्वयं का जन्म नक्षत्र नहीं होना चाहिए।
  • तेरह सबसे बड़ी संतान का विवाह ज्येष्ठा नक्षत्र में सर्वदा वर्जित होते हैं।
  • चौदह पंच शलाका, सप्त शलाका चक्र के अनुसार नक्षत्रों में जो बेध निर्मित होते हैं, उसे भी ध्यान में रखा जाता है।
  • मास शून्य नक्षत्र भी निषिद्ध होता है।
  • सोलह जिस नक्षत्र में महाउत्पात हुआ हो तथा सूर्य व चण्ड ग्रहण लगा हो, वह नक्षत्र छहः महीनों तक वर्जित माना गया है।
  • पुष्य नक्षत्र विवाह संस्कार में विशेष वर्जित हैं।

नक्षत्र गंडांत:- ज्येष्ठा, आश्लेषा, रेवती नक्षत्रों की अंत की दो घड़ियां मूल, मघा, या अश्विनी नक्षत्रों की शुरुआत की दो घड़ियों को नक्षत्र गंडांत कहा गया है।

तिथि विचार:

  • पंचमी के बाद शुक्ल पक्ष में तिथियां तथा कृष्ण पक्ष में दसवीं तिथि से पहले की
  • तिथि रिक्ता तिथियां(४,९,१४) या अमावस्या व्रजित होती हैं।
  • श्राद्ध तिथि वर्जित हैं।
  • माता-पिता की मृत्यु तिथि वर्जित हैं।
  • दूसरी शादी हो रही है तो पहली पत्नी की मृत्यु तिथि वर्जित हैं। यह दोष गंधर्व विवाह संस्कार में भी देखा जाता है।
  • क्षय तिथियाँ वर्जित हैं।
  • वृद्धि तिथियाँ वर्जित हैं।
  • पूर्णा संज्ञक तिथियों की शुरुआत में एक घड़ी और पूर्णा संज्ञक तिथियों में अंत में एक घड़ी होती है।
  • दग्धा तिथि वृत हैं।

वार विचार :- रविवार, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार शुक्रवार, शनिवार शुभ है।

तीस लग्न विचार:- स्थिर लग्न तथा गोधूलि का समय उत्तम माना गया है।

सोलह लग्न गण्डान्त:- मीन, वृश्चिक या कर्क लग्न के अंत की मध्य घड़ी या मेष, सिंह, धनु लग्न की प्रथम मध्य घड़ी गण्डान्त मे आती हैं। लग्न गण्डान्त विवाह संस्कार में वर्जित माना गया है।

  • लग्न का स्वामी ६,८,१२ में नहीं होना चाहिए।
  • अधिक लग्नेश अस्त नहीं होना चाहिए।
  • 35 भद्रा का समय भी विवाह संस्कार में वर्जित होता है।
  • सूर्य जिस दिन राशि परिवर्तित होती है उस दिन को वर्जित कहा गया है।
  • तिथि बदल जाने पर दोष नहीं माना जाता।
  • बख्श दानपत्य सुख तथा सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक माने गए गुरु तथा शुक्र ग्रह अस्त नहीं होना चाहिए ।
  • वृष राशि के जातकों को भी बाल्य तथा वृष राशि को ध्यान में रखना चाहिए।
  • होलाष्टक विवाह संस्कार वर्जित है।( फाल्गुन मास की पूर्णिमा से पहले के आठ दिन )।
  • वृत्त क्षीण चन्द्र दोष :-कृष्ण पक्ष कि चतुर्दशी, अमावस्या
  • उस दिन शुक्ल पक्ष में प्रथम तिथि को चंद्रमा क्षीण रहता है।

ओपी तारा दोष: –

  • 3,5,7 तारा विवाह संस्कार में वर्जित हैं।
  • जन्म नक्षत्र से दिन तक गिनें और 9 का भाग देने पर शेष जन्म संख्या नक्षत्र को तारा जाने

पूर्व लता दोष :-

  • जिस नक्षत्र में बुध हो उससे पूर्व सप्तम नक्षत्र पर लता दोष होता है।
  • जिस नक्षत्र पर राहु हो उससे पिछले नवम नक्षत्र पर लता दोष होता है।
  • पूर्णिमा का चंद्रमा जिस नक्षत्र पर हो उससे पूर्ववर्ती बाईसवें नक्षत्र पर लता दोष होता है।
  • शुक्र जिस नक्षत्र पर हो उससे पिछले पंचम नक्षत्र पर लता दोष होता है।
  • सूर्य जिस नक्षत्र पर होता है उससे आगे वाले 12वें नक्षत्र पर लता दोष होता है।
  • शनि जिस नक्षत्र पर होता है उस नक्षत्र से आगे के 8 नक्षत्र पर लता दोष होता है।
  • बृहस्पति जिस नक्षत्र पर होता है, उससे आगे के छठे नक्षत्र पर दोष होता है।
  • मंगल जिस नक्षत्र पर होता है उससे आगे के तीसरे नक्षत्र पर लता दोष होता है।
  • लता दोष का अर्थ है लात मारना।( पांव से मारना)

बाह्य पात दोष:-

हर्षण, वैघृति, साध्य, व्यतिपात, गण्ड, तथा शूल। इन योगों के अंत में जो नक्षत्र हो वह पातयोग से दुष्यंत होता है। यदि चन्द्र नक्षत्र में से कोई योग समाप्त हो तो तब भी पात दोष होता है। पात दोष को चण्डीश या चण्डायुध दोष भी कहा गया है। ( पात दोष के कारण ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पतन हुआ है ऐसा प्रचलन में है इसके लिए पात दोष को वर्जित माना गया है। )

विश्वसनीय क्रान्ति साम्य दोष:-

  • सूर्य से चंद्रमा या चंद्रमा से सूर्यआठवें भाव में होने से यह दोष बनता है।
  • सूर्य चन्द्रमा से मेल खाते हैं तो विवाह संस्कार में वर्जित होते हैं। क्रांति साम्य दोष में वैधृति, व्यतिपात, योग प्रवृत्ति है तो इसे शुभ कार्यों में सदैव वर्जित करें।

यमित्र दोष :-

  • लग्न से १४वें नक्षत्र को यमित्र कहते हैं। यदि वह शुभ युक्त हो तो इसे ग्रहण किया जाता है। अगर पाप युक्त हो तो यह घटित होता है।

जामित्र दोष :- लग्न या चन्द्रमा से सप्तम स्थान में कोई ग्रह उत्पन्न नहीं होता।

नूबिल खार्जुर दोष तथा एकाग्रलदोष:-

व्याघात, गण्ड, व्यतिपात, विषकुंभ, शूल, वैघृति, वज्र, परिध तथा अतिगण्ड यह अशुभ योग जिस दिन हो तथा सूर्य के नक्षत्र से विपरीत नक्षत्र पर चंद्रमा होतो यह दोष बनता है। इस मे 28 नक्षत्रों को मिलता है। जाता है।

युति दोष :–

  • जिस भाव में चन्द्रमा हो उसके साथ में कोई पाप ग्रह हो तो यह दोष निर्मित होते हैं।
  • ओर कोई शुभ ग्रह हो तो यह दोष नहीं बनता।
  • जिस नक्षत्र में भी कोई पाप ग्रह हो तब भी यह दोष बनता है। इस दोष के बारे में यह पुरानी प्रचलित धारणाएं हैं कि युति दोष से व्यभिचारिता के गुणों का प्रवेश स्वभाव में आ जाता है।
  • सूर्य नक्षत्र से चंदा नक्षत्र पांचवा, सातवां, आठवां, दसवां, चौदहवां, पंद्रहवां, अठारहवां, उन्नीसवां, बीसवां, बाईसवां, तेईसवां, चौबीसवां, पच्चीसवां हो तो उपग्रह दोष बनते हैं । इस दोष को कहीं पर विकृत तो कहीं पर निर्दोष भी कहा गया है।

पचादश योग दोष:-

  • अश्विनी नक्षत्र से सूर्य नक्षत्र तक जोड़ें
  • तथा अश्विनी नक्षत्र से चंद्र नक्षत्र तक जोड़ें
  • दोनों की संख्याओं को जोड़ें 27 से भाग दें यदि शेष अंक में शून्य, 1,4,6, 10, 11 ,15, 18 ,19
  • 20 संख्या शेष रहे तो यह दशयोग दोष बनता है।

शून्य शेष रहे तो वायु भय, एक शेष रहे तो मेध का भय, चार शेष रहे तो अग्नि का भय, छह शेष रहे तो राज भय, दस शेष रहे तो चोर भय, ग्यारह शेष रहे तो मृत्यु भय, पन्द्रह शेष रहे तो रोग भय ,अथाह शेष रहे तो वज्र भय, उन्नीस शेष रहे तो अपयश का भय, बीस शेष रहे तो हानि का भय रहता है।

  • परिवार में सावड़-सूतक, बुरे शकुन रजो दर्शन निषिद्ध है।
  • बहन भाई की शादी एक दिन नहीं करनी चाहिए ।
  • प्राकृतिक आपदा में विवाह संस्कार निषिद्ध है।
  • काल बेला वर्जित हैं।
  • लग्न में पाप ग्रह हो तो मर्म बेध होता है। मर्म बेध का फल मृत्यु कहा जाता है।

षड् कंटक बेध :- नवम तथा पंचम भाव में पाप ग्रह होने से यह दोष निर्मित होते हैं। इस दोष को कूलक्षय कहा गया है।

शल्य बेध:- चौथे तथा दसवें भाव में पाप ग्रह होने पर यह दोष निर्मित है। शल्य दोष में राज दण्ड कहा गया है।

पाँच छिद्र बेध:- सप्तम मे पाप ग्रह होने पर यह दोष बनता है। छिद्र दोष मे पुत्र नाश कहा गया है। विवाह संस्कार के लिए मुहूर्त समय इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

विवाह संस्कार हिन्दू संस्कृति का विशेष महत्व है।

विवाह संस्कार का प्रयोजन जीवन में दाम्पत्य जीवन कि शुरुआत करने से है।

मुहूर्त निकलवाने के लिए नामाकन करे-

अपने समय अनुसार दो दिनांक लिखें-