प्रकृति में विकास के उद्गम का साक्षात्कार है गर्भ धारण संस्कार। सृष्टि कि संरचना कि प्रक्रिया का एक सूक्ष्म रूप है गर्भ धारण संस्कार। प्रकृति का विस्तार निषेचन क्रिया से शुरू होता है। गर्भधारण संस्कार के समय अपने चित्त को शुद्ध एवं शांत रखें।
गर्भाधान से जुड़ी अन्य महत्वपुर्ण जानकारियां।
पूर्ण युवावास्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करके कम से कम पच्चीस वर्ष का युवा और इक्कीस वर्ष कि कन्या होनी चाहिए । वर्तमान समय के परिवेश में यह आयु बढ सकती है लेकिन कम नही होनी चाहिए।
क्योकि गर्भ के पालन के लिय उद्दर तथा वीर्य बल पूर्ण रूप से विकसित होने चाहिए। इससे पहले किया गया गर्भधारण औरत के उद्दर से संबंधित रोग उत्पन्न करता हैं तथा पुरूषों के धातु संबंधित रोगों में वृद्धि करता हैं। यह संस्कार रात्रि काल में ही करना चाहिए। दिन काल में यह संस्कार विकृति पुर्ण होता है।
शास्त्रानुसार समागम के मत समागम ऋतुकाल में ही करें क्योंकि जीवन में स्त्री रमण का महत्व केवल सन्तानोपत्ति ही है । इसके अलावा इसका कोई महत्व नही हैं । इस लिय पराई स्त्री का हमेशा त्याग करें ।
पुरूषार्थ को बनाये रखे इससे जीवन सुगम बनता हैं । रजो दर्शन से सोलह रात्री पर्यन्त हैं । प्रथम चार रात्री तो स्त्री से दुर ही रहे। प्रथम चार रात्री सदैव समागम के लिय निषेध है । इनमें समागम करना महारोग का कारक होता हैं ।
इसमें ग्यारवीं ओर तेरहवीं रात्री भी गर्भ धारण करने के लिय उचित नही हैं ।शेष बची दस रात्रियों मे ध्यान रहें कोई त्योहार पुर्णिमा ,अमावस्या,चतुर्दशी,अष्टमी निषेध हैं। इन दस रात्रियों में उपर लिखे नक्षत्रों तथा शुभ तिथियों में समागम करना अच्छा फलदायी हैं ।
इस संस्कार के करने से पहले अपने पुर्वजों का आशिर्वाद ले अच्छी सन्तान कि कामना करते हुए मन को प्रसन्नचित्त रखें ।आपके शयन कक्ष में शयनावस्था दक्षिण दिशा में सिर तथा पूर्व दिशा में ही रखें।
यह सभी संस्कारों से महत्वपूर्ण संस्कार हैं। परमात्मा से सफलता कि कामना करते हुए चुने हुऐ समय का प्रयोग करके इच्छानूसार फल प्राप्त कर सकते है।
शुभ नक्षत्र :- रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, हस्त, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा आदि गर्भ धारण में शुभ नक्षत्र कहेे गये है ।
चंद्रमा विचार :- किसी भी कार्य की शुरुआत में चंद्रमा कि स्थिति मुख्य नियम है। इस संस्कार में पति पत्नी दोनों कि प्रचलित नाम राशि से चंद्रमा शुभ स्थिति में होना चाहिए।
तिथि विचार :- रिक्ता (४,९,१४) ,क्षय तिथि,अष्टमी,अमावस्या,पुर्णिमा।
विशेष पर्व , सावड़-सूत्तक , श्राद्ध, होलाष्टक, ग्रहण काल,आदि गर्भधारण मे निषेध होती हैं।
मास विचार :- मलमास, अधिक मास निषेध है।
वार विचार :- कोई भी ग्रहण कर सकते हैं ।
लग्न:- जो सूर्यास्त से बाद में पङे वे सभी लग्न ग्रहण कर सकते हैं ।
स्वर विचार।
दोनों जातकों में से एक कि सूर्य स्वर (नाड़ी)और दुसरे का चंद्रमा स्वर (नाड़ी)चलना शुभ स्थिति मानी जाती है।
ग्रहोंदय-अस्त अवस्था।
अगर ग्रहों का ध्यान रखा जाय जैसे कोई ग्रंह अस्त ना हो तो सन्तान मे उस ग्रह से संबंधित विकार नही होते।
सूर्यास्त नहीं होता है। रात्रि काल में पृथ्वी कि स्थिति में परिवर्तन होता है। सूर्य अस्त नहीं होता है अन्य ग्रहों कि तरह सूर्य का प्रकाश निस्तेज नहीं होता है।
स्वर क्रिया का विशेष ध्यान रखने से यह उचित परिणाम देने में सहायक होता हैं ।
अगर इन नियमों के अनुसार विशेष योग में यह संस्कार किया जाए तो अधिक महत्वपूर्ण होता है।
गर्भाधान के समय मन कि विशेष स्थिती लाभकारी होती हैं ।
गर्भधारण संस्कार के बाद जब महावारी बंद हो जाएं उसके बाद इस क्रिया के साक्ष्य रूप में एक वृक्ष जरूर लगाएं।
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