ॐ नमः शिवाय
शिवप्रातः स्मरणस्तोत्रम्प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम् ।
खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशं संसाररोगहरमौषधमद्वितीय्।।
प्रातर्नमामि गिरिशं गिरिजार्धदेहं सर्गस्थितिप्रलयकारणमादिदेवम्।
विश्वेश्वर विजितविश्वमनोऽभिरामंसंसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ।।
प्रातर्भजामि शिवमेकमनन्तमाद्यं वेदान्तवेद्यमनघं पुरुषं महान्तम् ।।
नामादिभेदरहितं षड्भावशून्यं संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम्।
प्रातः समुत्थाय शिवं विचिन्त्य श्लोकत्रयं येऽनुदिनं पठन्ति ।
ते दुःखजातं बहुजन्मसंचितं हित्वा पदं यान्ति तदेव शम्भोः ॥
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दोहा।
अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार। बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार ॥ १ ॥
आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति-मुक्ति-दातार। करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार ॥ २ ॥
पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार। सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार ॥ ३ ॥
पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार। ढरौ तुरंत स्वभाववश, नेक न करौ अबार ॥ ४॥
जय शिव शंकर औढरदानी। जय गिरितनया मातु भवानी ॥ १ ।।
सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर ॥ २ ॥
सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता । उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता ॥ ३ ॥
पराशक्ति-पति अखिल विश्वपति । परब्रह्म परधाम परमगति ॥ ४ ॥
सर्वातीत अनन्य सर्वगत । निजस्वरूप महिमामें स्थितरत ॥ ५ ॥
अंगभूति-भूषित श्मशानचर । भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर ॥ ६ ॥
वृषवाहन नंदीगणनायक । अखिल विश्वके भाग्य विधायक ॥ ७ ॥
व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर ॥ ८ ।।
कर त्रिशूल डमरूवर राजत । अभय वरद मुद्रा शुभ साजत ॥ ९ ॥
तनु कर्पूर-गौर उज्ज्वलतम । पिंगल जटाजूट सिर उत्तम ॥ १०॥
भाल त्रिपुण्ड्र मुण्डमालाधर । गल रुद्राक्ष-माल शोभाकर ॥ ११ ॥
विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी । बने सृजन-पालन-लयकारी ॥ १२ ॥
तुम हो नित्य दयाके सागर । आशुतोष आनन्द-उजागर ॥ १३ ॥
अति दयालु भोले भण्डारी । अग-जग सबके मंगलकारी ॥ १४॥
सती-पार्वतीके प्राणेश्वर । स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर ॥ १५ ॥
हरि-हर एक रूप गुणशीला । करत स्वामि-सेवककी लीला ॥ १६ ॥
रहते दोउ पूजत पुजवावत । पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत ॥ १७ ॥
मारुति बन हरि-सेवा कीन्ही । रामेश्वर बन सेवा लीन्ही ॥ १८॥
जग-हित घोर हलाहल पीकर । बने सदाशिव नीलकंठ वर ॥ १९ ॥
असुरासुर शुचि वरद शुभंकर । असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर ॥ २०॥’
नमः शिवाय’ मन्त्र पंचाक्षर । जपत मिटत सब क्लेश भयंकर ॥ २१ ॥
जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित । तिनको शिव अति करत परमहित ॥ २२ ॥
श्रीकृष्ण तप कीन्हों भारी । है प्रसन्न वर दियो पुरारी ॥ २३ ॥
अर्जुन संग लड़े किरात बन । दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन ॥ २४ ॥
भक्तनके सब कष्ट निवारे । दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे ॥ २५ ॥
शंखचूड़ जालन्धर मारे । दैत्य असंख्य प्राण हर तारे ॥ २६ ॥
अन्धकको गणपति पद दीन्हों । शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों ॥ २७ ॥
तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं । बाणासुर गणपति-गति कीन्हीं ॥ २८ ॥
अष्टमूर्ति पंचानन चिन्मय । द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग ज्योतिर्मय ॥ २९॥
भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा ॥ ३० ॥
काशी मरत जंतु अवलोकी । देत मुक्ति-पद करत अशोकी ॥ ३१॥
भक्त भगीरथकी रुचि राखी । जटा बसी गंगा सुर साखी ॥ ३२॥
रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी । ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी ॥ ३३॥
शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक । शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक ॥ ३४ ॥
इनके शुभ सुमिरनतें शंकर । देत मुदित है अति दुर्लभ वर ॥ ३५ ॥
अति उदार करुणावरुणालय । हरण दैन्य-दारिद्र्य-दुःख-भय ॥ ३६ ॥
तुम्हरो भजन परम हितकारी । विप्र शूद्र सब ही अधिकारी ॥ ३७ ॥
बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं । ते अलभ्य शिवपदको पावहिं ॥ ३८ ॥
भेदशून्य तुम सबके स्वामी । सहज सुहृद सेवक अनुगामी ॥ ३९॥
जो जन शरण तुम्हारी आवत । सकल दुरित तत्काल नशावत ॥ ४० ॥
बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार । गनौ न अघ, अघ-जाति कछु, सब विधि करौ सँभार ॥ १ ॥
तुम्हरो शील स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय । तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नहिं कुभाग्य जन कोय ॥ २ ॥
दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार।कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करौ पाप सब छार ॥ ३॥
कृपा-सुधा बरसाय पुनि, शीतल करो पवित्र । राखौ पदकमलनि सदा, हे कुपात्रके मित्र ! ॥४॥
हर हर महादेव ।