प्राचीन काल से रत्नों का प्रयोग आयुर्वेद में ओषधियों के रूप में होता था। रत्नों की भस्म बनाकर उनसे रोगों को ठिक किया जाता था। जैसे-जैसे आयुर्वेद का प्रचार कम होता गया उसी प्रकार इन का प्रचार भी कम होता चला गया। रत्नों की भस्म बनाना एक जटिल प्रक्रिया है जो कि सिर्फ विद्वान आयुर्वेदाचार्य हि बनाते थे।
जब षड्यंत्रों अधीन इसका बिरोध हुआ तो इस प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। लेकिन कुछ रत्नों की भस्म आज भी हमें बाजार में मिल जाते हैं। जैसे मोती प्रिष्टी प्रवाल प्रिष्टी प्राचीन काल से ज्योतिष में उपचार के लिए दान का महत्व बताया गया है। इस परिपाटी के अनुसार नव रत्नों को अलग अलग ग्रहों के अनुसार इनका दान करने के लिए कहा गया है।
जिस ग्रह से संबंधित पीड़ा को ज्योतिषी चिन्हित करता था उसी से संबंधित रत्नों का दान करवाया जाता था। यह दान उसी विद्वान बैद्य को दिलवाया जाता जो इनकी ओषधि बनाकर रोगियो तक पहुंचा सके। उस समय आयुर्वेद कि ओषधियों को बनाने यह कार्य केवल ब्राह्मण वर्ण हि किया करते थे।
इस लिए इन रत्नों का दान ब्राह्मण को दान करने के लिए कहा गया है। ना कि किसी भी ब्राह्मण को। बैद्य इनकी ओषधि (भस्म) बनाकर रोगियों को निशुल्क वितरित करता जिससे रोगी ठीक होकर दान करने वाले को आशीर्वाद देता। जीससे उपाय फलित होता था।इसके अतिरिक्त इनका उपयोग ज्योतिष उपायों के तोर पर पहलें कभी नहीं होता था।
अपभ्रंसित ज्ञान के कारण इन गलत तरीकों का प्रचलन हुआ।जिसके कारण विद्वान ज्योतिष शास्त्र पर भी संदेह जताते हैं।कुडली में ग्रह स्थिति खराब होने पर इसके लिए जो रत्न चिन्हित किया गया है उसे गले अथवा अगुलियों मे धारण करवाया जाता हैं।जिससें मात्र पैसे तो खर्च होते है लेकिन उपचार नही होता।
जो लोग ज्योतिष का व्यवसायिकरण करते है वही लोग इन उपायों को बढावा देते है। इन ऊपायो का ज्यादा प्रचलन सन्1954 के बाद हुआ। रत्नों का तो अलग विषय होता है।हिरा सबसे कठोर धातु है अन्य धातुओं को काटने के काम आता हैं सबसे कठोर धातु हैं कठोर होने के कारण सबसे महगां इस लिए धनाढय व्यक्ति इसे अपने श्रृंगार के साथ जोड़ते थे। उस समय में प्रचलन था। आभूषणों तथा सिहांसनो में इनको जड़ा जाता था।